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आज की कहानी: गंगा जी में धोया पाप कहाँ – कहाँ तक जाता है

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एक बार किसी गाँव में एक महात्मा सत्संग कर रहे थे, तभी कहीं से एक चोर आकर सत्संग में बैठ गया। महात्मा के सत्संग का इतना प्रभाव हुआ कि चोर को अपने पाप कर्मों से घृणा होने लगी। सत्संग समाप्त होने के बाद चोर महात्मा के पास गया और अपने पापों के प्रायश्चित का उपाय पूछने लगा।
महात्माजी ने बोल दिया – “ गंगा स्नान कर आओ, तुम्हारे पाप धुल जायेंगे।”
वह चोर तो गंगा स्नान के लिए चला गया लेकिन तभी वहाँ बैठे लोगों में से एक युवक खड़ा हुआ और बोला – “ महात्माजी ! आप कहते है कि गंगा स्नान से पाप धुल जाते है तो इसका मतलब ये हुआ कि पाप गंगा जी में समा गये, मतलब गंगाजी भी पापी हो गई।”
युवक की बात का महात्माजी के पास कोई जवाब नहीं था । क्योंकि उन्होंने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं कि गंगाजल से पाप कहां जाते है ? आखिरकार इस अनोखे प्रश्न का उत्तर जानने के लिए महात्मा जी तपस्या करने लगे।
कई दिनों की तपस्या के बाद महात्माजी पर देवता प्रसन्न होकर प्रकट हो गये और वरदान मांगने को कहा। महात्माजी ने कहा – “ भगवन ! मुझे अपने एक प्रश्न का उत्तर चाहिए कि गंगा में धोया गया पाप कहाँ जाता है ?”
देवता अपने में मग्न, उन्हें भी पता नहीं कि गंगा में धोया पाप कहाँ जाता है ! अतः देवता बोले – “ चलो ! गंगाजल से ही पूछ लेते है और दोनों गंगाजी के पास पहुँचे। महात्माजी ने गंगाजल से प्रश्न किया – “ है शीतल और परम पवित्र जल की अधिपति माँ गंगे ! कृपा करके हमें बताएं कि अनगिनत लोग आप में जो पाप धोते है, उसे क्या आप भी पापी होती हो ?”
गंगाजी ने प्रसन्नता से कहा – “ भला मैं क्यों पापी हुई, मैं तो अपना सारा जल पापों सहित समुद्र को समर्पित कर देती हूँ । उसके बाद उन पापों का समुद्र देवता क्या करते है ? ये उन्हीं से पूछो ।
देवता महात्मा को लेकर समुद्र के पास गए और बोले – “ हे जलसिंधु ! माँ गंगे अपने सम्पूर्ण जल के साथ जो पाप आपको अर्पित देती है । उनसे क्या आप पापी होते है ?”
सागर ने कहा – “ मैं तो अपना सम्पूर्ण जल सूर्य के ताप से भाप बनाकर बादलों में परिवर्तित कर देता हूँ । इसलिए भला मैं क्यों पापी हुआ ?”
अब देवता महात्माजी को बादलों के पास ले गये और महात्माजी ने बादलों के सामने भी अपना प्रश्न दोहराया – “ हे मेघा ! समुद्र जो पापों सहित जल को भाप बनाकर बादलों में परिवर्तित कर देते है । तो क्या उन पापों से बादल पापी होते है ?”
बादल बोले – “ भाई ! हम क्यों पापी हुए, हम तो सारा जल यथा ऋतू पृथ्वी पर भेज देते है । ये प्रश्न पृथ्वी से करो कि वह पापों का क्या करती है ?”
अब देवता महात्माजी को पृथ्वी के पास ले गये और बोले – “ हे जगत को धारण करने वाली माँ धरती, बादल जल की बूंदों के साथ पापों की जो वर्षा करते है, वो पाप आप में समा जाते है । तो क्या उसे आप पापी होती है ?”
पृथ्वी बोली – “ मैं क्यों पापी हुई ! मैं उन पापों को मिट्टी के माध्यम से अन्न में भेज देती हूँ । अब ये बात तो आप अन्न से पूछो कि वो उन पापों का क्या करता है ?”
अब दोनों अन्नदाता के पास गए और बोले – “ हे अन्न देवता ! पृथ्वी सारे पाप आपको भेजती है, तो क्या आप पापी हुए ?”
अन्न देवता बोले – “ मैं क्यों पापी हुआ ? जो मनुष्य मुझे जिस मन स्थिति और वृत्ति से उगता है या प्राप्त करता है । जिस मन स्थिति और वृत्ति से बनाया और खिलाया जाता है । उसी मनःस्थिति और वृत्ति के अनुरूप मैं पापों को उन मनुष्यों तक पहुँचा देता हूँ । जिसे खाकर उन मनुष्यों की बुद्धि भी वैसी ही पापी हो जाती है जो उनसे उनके कर्मों का फल देने वाले कार्य करवाती है ।”
शायद इसीलिए कहा गया है – “ जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन ”
यह कहानी कितनी सच है ये महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि इससे एक बड़े महत्वपूर्ण सत्य को उद्घाटित किया गया है । पाप कर्मों को गंगाजी में धोने का मतलब है मन को पाप कर्मों से मुक्त करना । यदि मन में पाप और अपवित्रता है तो गंगाजी में धोया पाप अन्न के माध्यम से फिर से हमें ही मिलने वाला है । क्योंकि अन्न को जिस वृति से कमाया और बनाया जाता है, उससे वैसे ही संस्कार बनते है ।

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