किसी स्थान पर संतों की एक सभा चल रही थी, किसी ने एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संत जन को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था, उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे।
वह सोचने लगा:- “अहा, यह घड़ा कितना भाग्यशाली है, एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।
घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा:- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था, किसी काम का नहीं था, कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया।वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के अंदर आग में झोंक दिया जलाने को। इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया, वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?
ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये, मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि:- “हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था, रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।” भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी।किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी। उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी, आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी।अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी।
परिस्थितियां हमें छोड़ देते हैं, विचलित कर देती हैं- इतने विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं। क्यों हम सब में इतनी शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की? इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते। बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे। पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे?
आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो। कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा। ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है, किसी के साथ देर तो किसी के साथ सवेर। यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपा दृष्टि में समय कितना लगता है।