भगवद गीता में, भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में शिक्षा देते हैं। इसी क्रम में, वे तपस्वी, ज्ञानी और योगी की तुलना करते हुए बताते हैं कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है।
तपस्वी, ज्ञानी और योगी की विशेषताएं:
- तपस्वी: तपस्वी वे होते हैं जो इंद्रियों को नियंत्रित करके और कठोर साधना करके आत्म-शुद्धि प्राप्त करते हैं।
- ज्ञानी: ज्ञानी वे होते हैं जिन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन करके ईश्वर और आत्मा के स्वरूप को समझ लिया है।
- योगी: योगी वे होते हैं जिन्होंने मन को नियंत्रित करके और ध्यान के माध्यम से ईश्वर के साथ तादात्म्य प्राप्त कर लिया है।
योगी की श्रेष्ठता के कारण:
- योगी ने इंद्रियों को पूरी तरह से वश में कर लिया है और वह सांसारिक आकर्षणों से मुक्त हो गया है।
- योगी ने ज्ञान प्राप्त करके आत्मा और ईश्वर के स्वरूप को समझ लिया है।
- योगी ने ध्यान के माध्यम से ईश्वर के साथ तादात्म्य प्राप्त कर लिया है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः, कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन (अध्याय 6 श्लोक 46 )
तपस्विभ्यः-तपस्वियों की अपेक्षा; अधिक:-श्रेष्ठ; योगी-योगी; ज्ञानिभ्यः-ज्ञानियों से; अपि-भी; मत:-माना जाता है; अधिक-श्रेष्ठ; कर्मिभ्यः-कर्मकाण्डों से श्रेष्ठ; च-भी; अधिक:-श्रेष्ठ, योगी-योगी; तस्मात्-अतः; योगी-योगी; भव-हो जाना; अर्जुन-अर्जुन।
अर्थ -एक योगी तपस्वी से, ज्ञानी से और सकाम कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है। अतः हे अर्जुन ! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
व्याख्या – इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा दे रहे है। ऐसा वो इसलिए कह रहे है क्यूंकि योगी एक तपस्वी से, ज्ञानी से और सकाम कर्मी से भी श्रेष्ठ होता है। दरअसल योगी शरीर की अवस्था से मुक्त होकर ईश्वर को प्राप्त करने की कोशिश करते है इसलिए वो पूरी तरह अपने आप को श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित कर देते है। यही कारण है कि श्री कृष्ण ने योग की अवस्था को श्रेष्ठ कहा है।