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मनोविकृति कैसी विडम्बना हम ये समझ न पाते हैं
अपने उत्सव भूल गए गैरों के खूब मनाते हैं
चरण स्पर्श माँ बाप के प्रातः उठकर करना भूल गए
साल में अब तो अलग अलग दिन याद वो हमको आते हैं
रक्षाबंधन , दूज को भूले तीज , चतुर्दशी याद नहीं
कब पूर्णिमा , कब है अमावश्य याद हमें न आते हैं
अपनी सभ्यता संस्कृति ही दुनिया को आकर्षित करती
जिन रस्मों को छोड़ा हमने दुनिया वाले अपनाते हैं
दुनिया को जीना सिखलाया हमने ये भी भूल गए
नकल करें गैरों की हम क्यों , उनके पीछे जाते हैं
होली के रंगों से बचते , जगमग से दीवाली की
ढोंग नज़र क्यों आते हमको , जिनसे अपने नाते हैं
अपने उत्सव , जीवन दर्शन , करलो तुम गुस्ताख यहीं
अपने उत्सव जो हैं उनमें खोट नजर क्यों आते हैं
गुस्ताख़ हिन्दुस्तानी
( बलजीत सिंह सारसर )
दिल्ली