सोलह श्राद्धों का महत्व पितृ पक्ष में पूर्वजों के सम्मान और उन्हें प्रसन्न करने की दृष्टि से बेहद खास माना जाता है। हिंदू शास्त्रों में यह कहा गया है कि पितृ पक्ष के दौरान पितृलोक से पूर्वज धरती पर आते हैं और अपने वंशजों द्वारा किए गए श्राद्ध कर्म को स्वीकार करते हैं। यह 16 दिन पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति और उन्हें मोक्ष प्रदान करने के उद्देश्य से होते हैं।
अष्टमी और नवमी के दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने गए हैं क्योंकि इन दिनों में पिता और माता के श्राद्ध का विधान है। अष्टमी के पिता का श्राद्ध इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिन पितृ ऋण से मुक्त होने का प्रतीक है, वहीं नवमी को माता का श्राद्ध करके मातृ ऋण से मुक्ति प्राप्त की जाती है। शास्त्रों में माता-पिता को देवताओं के समकक्ष माना गया है, और इस कारण उनका श्राद्ध सबसे प्रमुख माना जाता है।
यह बात भी गौर करने योग्य है कि इस दौरान किए गए कर्मकांड में पिंडदान और तर्पण का महत्व सर्वोपरि है। पिंडदान से पूर्वजों की आत्मा को अन्न और जल की तृप्ति दी जाती है, और तर्पण के माध्यम से उन्हें जल समर्पित किया जाता है। इन दोनों विधियों का मुख्य उद्देश्य पूर्वजों की आत्मा की शांति सुनिश्चित करना है ताकि वे पितृलोक में प्रसन्न और संतुष्ट रहें।
पितृ पक्ष के दौरान कोई भी मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश, या किसी नए कार्य का आरंभ वर्जित होता है। यह माना जाता है कि पितरों की उपेक्षा करके कोई शुभ कार्य करना अनिष्टकारी हो सकता है, क्योंकि इस अवधि में पूर्वजों की प्राथमिकता होती है।
आजकल के समय में व्यस्त जीवनशैली और पलायन के कारण पारंपरिक श्राद्ध विधियों में कमी देखने को मिल रही है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार, यह एक महत्वपूर्ण कर्म है जो किसी भी तरह से टाला नहीं जाना चाहिए। ऐसे में जिनके पास समय की कमी है, वे पंडितों द्वारा सुझाई गई सरल विधियों से भी श्राद्ध कर सकते हैं, ताकि पितरों का आशीर्वाद प्राप्त हो सके और पितृ ऋण से मुक्ति मिल सके।