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बरसाने में एक छोटा सा स्थान है “मोर-कुटी”। इस स्थान की महिमा बताने जा रहा हूँ।

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एक समय की बात है जब लीला करते हुए राधा जी प्रभु से रूठ गयी और वो रूठ के मोर-कुटी पर जा के बैठ गयी और वहां एक मोर से लाड करने लगी। जब हमारे ठाकुर जी उन्हें मनाने के लिए मोर-कुटी पर पधारे तो देखा कि राधे जू हमसे तो रूठ गयी और उस मोर से प्यार कर रही हैं।

ठाकुर जी को उस मोर से ईर्ष्या होने लगी। वो राधा रानी को मनाने लगे तो किशोरी जी ने ये शर्त रख दी कि हे! बांके बिहारी, मेरी नाराज़गी तब दूर होगी जब तुम इस मोर को नृत्य प्रतियोगिता में हरा कर दिखाओगे। ठाकुर जी इस बात पर राजी हो गए क्यूंकि उस नन्द के छोरे को तो नाचने का बहाना चाहिए।

और जब राधा रानी के सामने नाचने की बात हो तो कौन पीछे हटे। प्रतियोगिता प्रारंभ हुई, एक तरफ मोर जो पूरे विश्व में अपने नृत्य के लिए विख्यात है और दूसरी ओर हमारे नटवर नागर नन्द किशोर। प्रभु उस मयूर से बहुत अच्छा नाचने लगे पर फ़िर किशोरी जी को लगा कि यदि बांके बिहारी जीत गए तो बरसाने के मोर किसी को मुह नहीं दिखा पाएंगे, कि स्वयं राधा के गांव के मोर एक ग्वाले से न जीत सके।

इसलिए किशोरी जी ने अपनी कृपामयी दृष्टि उस मोर पर डाल दी और फ़िर वो मोर ऐसा नाचा कि उसने ठाकुर जी को थका दिया। सच है बंधुओ जिस पर मेरी लाडली लाल श्रीराधे जू कृपा की दृष्टि डाल दें, वो तो प्रभु को भी हरा सकता है।

जिसने राधा रानी के प्यार को जीत लिया समझो उसने श्रीकृष्ण जी को भी जीत लिया, क्यूंकि ठाकुर जी तो हमारी किशोरी जी के चरणों के सेवक है।

हम यदि अपनी जिह्वा से राधा नाम गाते हैं, तो उसमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है, वो तो उनकी कृपा ही है, जो हमारे मुख पर उनका नाम आया। और बंधुओ, पूरा राधा कहने कि भी आवश्यकता नहीं है। आप अपनी वाणी से कहो सिर्फ “रा”, ये रा सुनते ही बांके बिहारी के कान खड़े हो जाते हैं, और जब आप आगे बोलते हो “धा”, मतलब आप बोलते हो “राधा”, तो बांके बिहारी के कान नहीं फ़िर तो बांके बिहारी ही खड़े हो जाते हैं उस भक्त के साथ चलने के लिए।

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