एक बार एक गांव में जगत सिंह नाम का व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहता था। वह अपने गांव से शहर की ओर जाने वाली डेली बस में कंडक्टर का काम करता था। वह रोज सुबह जाता था और शाम को अंतिम स्टेशन पर उतरकर घर वापस चला आता था।
एक दिन की बात है कि जब शाम को बस का अंतिम स्टेशन आ गया तो उसने देखा कि बस के सभी यात्री उतर चुके हैं, परंतु अंतिम सीट पर एक बुजुर्ग महिला एक पोटली लिये हुए अभी तक बैठी हुई है । जगत सिंह ने उस महिला के पास जाकर कहा,” माता जी, यह अंतिम स्टेशन आ गया है। गाड़ी आगे नहीं जाएगी इसलिए आप उतर जाइए।“ यह सुनते ही वह बुजुर्ग महिला उदास हो गयी और कहने लगी,” बेटा मैं कहॉ जाउंगी? मेरा कोई नहीं घर नहीं और कोई सगा भी नही।” जगत सिंह ने उसके परिवार/अता-पता पूछा लेकिन महिला कुछ भी बता नहीं पा रही थी। जब काफी देर हो गयी तो जगत सिंह ने सोचा कि इस बुजुर्ग बेसहारा महिला को अपने साथ घर ले चलूं। फिर उसने कहा,” माता जी आप मेरे घर चलो। यह सुनकर महिला अपनी पोटली साथ लेकर चल पडी।
घर जाकर जगत सिंह ने पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। पहले तो उसकी पत्नी सुलोचना उस बुजुर्ग महिला को घर पर रखने को तैयार न थी लेकिन जगत सिह के समझाने के बाद वह मान गयी। अब घर पर एक कमरा जो खाली था, उसी में वह बुजुर्ग महिला रहने लगी। जगत सिंह और सुलोचना दोनो उसका ख्याल रखने लगे। सुलोचना प्रतिदिन उसे खाना देती थी, उसकी सेवा करती थी। इस तरह वे नि:स्वार्थ भाव से उनकी सेवा करते रहे। इस तरह दो साल बीत गये और फिर एक दिन उस बुजुर्ग महिला की मृत्यु हो ग़यी। उस महिला के पास जो पोट्ली थी, उसे अभी तक किसी ने खोला नही था। बुजुर्ग महिला का अंतिम संस्कार कररने के बाद जब जगत सिह ने पोट्ली को खोला तो उसकी आंखे फटी रह गयी। वह होटल नोटों से भरी थी। जब नोट गिने तो दस लाख रुपये निकले। जगत सिह और उसकी पत्नी को यकीन ही नही हो रहा था कि जिस बुजुर्ग महिला को वह बेसहारा समझ कर बिना किसी स्वार्थ के सेवा कर रहे थे, वह उनके लिये इतना धन छोड कर जायेगी।
मनुष्य द्वारा समाज व देश में समय-समय पर अनेक प्रकार की सेवाएं की जाती हैं लेकिन उनमें यदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप कहीं स्वार्थ छिपा हुआ है तो वह सेवा, सेवा नहीं मिलती । धर्मग्रंथों के अनुसार अपने तन-मन-धन का अभिमान त्याग कर निष्काम व निस्वार्थ भाव से की गई सेवा ही फलदायी साबित होती है। निस्वार्थ भाव की सेवा ही प्रभु भक्ति का उत्कृष्ट नमूना है। जो सेवा स्वार्थ भाव से की जाए तो स्वार्थपूर्ती होते ही उस सेवा का फल भी समाप्त हो जाता है। निस्वार्थ सेवा करते रहिए शायद आप का रंग औरों पर भी चढ़ जाये,जिसे भी आवश्यकता हो निःस्वार्थ सेवा भाव से उसकी मदद करें। आपको एक विशिष्ट शांति प्राप्त होगी।