18वीं सदी की बात है। तब कृष्ण चंद्र बंगाल के नदिया के राजा हुआ करते थे। उनके दरबार में गोपाल भांड एक नवरत्न थे। वह अपनी समझदारी और चतुराई से किसी भी समस्या का हल ढूंढ लेते थे।
एक बार राजा कृष्ण चंद्र के दरबार में बाहर से कोई विद्वान पंडित आया। राजा ने परिचय पूछा तो उस विद्वान पुरुष ने अपना परिचय संस्कृत, अरबी और फारसी समेत कई प्राचीन भाषाओं में दिया।
जब वह चुप हुए तो राजा कृष्णचंद्र ने अपने दरबारियों की ओर प्रश्न भरी नजरों से देखा कि बताओ इसकी मातृभाषा क्या है? लेकिन दरबारी यह अनुमान न लगा सके कि दरबार में पधारे पंडित जी की मातृभाषा क्या है? सभी चुप, दरबार में सन्नाटा छा गया।
राजा कृष्णचंद्र ने गोपाल भांड से पूछा, ‘क्या तुम कई भाषाओं के ज्ञाता अतिथि पंडित की मातृभाषा बता सकते हो?’ गोपाल भांड ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा, ‘महाराज, मैं तो भाषाओं का जानकार नहीं हूं, फिर भी यदि मुझे अपने हिसाब से पता करने की छूट दे दी जाए तो शायद मैं यह काम कर सकता हूं।’
राजा कृष्णचंद्र ने स्वीकृति दे दी। सभा समाप्त होने के बाद सभी दरबारी सीढ़ियों से उतर रहे थे। तभी गोपाल भांड अतिथि पंडित के पीछे गए और उसे जोर का धक्का दे दिया। पंडित गिर गए, उन्हें चोट भी लगी।
चोट और अपमान से तिलमिलाते हुए उन्होंने गोपाल भांड को अपशब्द कहने शुरू किए।सभी जान गए थे कि उनकी मातृभाषा क्या है। गोपाल भांड ने विनम्रता से कहा, ‘देखिए, तोते को आप राम-राम और राधे-श्याम सिखाया करते हैं। वह भी हमेशा राम-नाम या राधे-श्याम सुनाया करता है।
लेकिन जब बिल्ली आकर उसे दबोचना चाहती है, तो उसके मुख से टें-टें के सिवाय और कुछ नहीं निकलता। आराम के समय सब भाषाएं चल जाती हैं, लेकिन जब विपदा आती है तब मातृभाषा ही काम देती है।’ अतिथि पंडित अब गोपाल भांड की चतुराई पर चकित थे।