मेहरून रंग का वो सोफा मुझे बहुत पसंद था…
पिताजी ने उसे मुंबई से मंगवाया था उसके मुलायम गद्दे पर मैं खूब उछलता…कभी-कभी मैं उसी पर सो भी जाता था सोफा घर आए एक महीना भी नहीं बीता था कि दीदी की शादी तय हो गई…शादी की झमाझम तैयारी शुरू हो गई थी पिताजी ने प्रोविडेंट फंड और बैंक से सारे पैसे निकलवा लिए थे। खूब धूमधाम से शादी हुई थी।
शादी में पिताजी ने दीदी के ससुराल खूब सारा सामान भिजवाया था…मुझे तो याद भी नहीं कि क्या-क्या गया था।
मैंने मां से पूछा था कि दीदी की जहां शादी हुई है, क्या उनके घर में सामान नहीं हैं…मां ने हंसते हुए मेरी ओर देखा था और कहा था.., “वहां सब कुछ है बेटा, पर बेटियों की शादी में ये सब देना पड़ता है….मुझे खुशी हो रही थी कि दीदी नए पलंग पर सो गए… दीदी नई कुर्सी पर बैठेगी…
शादी हो चुकी थी पर शादी के कुछ ही दिनों बाद मैं जब स्कूल से घर लौटा तो मैंने देखा कि घर के बाहर एक ट्रक खड़ा है…
पिताजी उस पर मेहरून रंग का सोफा रखवा रहे थे। मैं दौड़ कर कमरे में गया। मैंने पिताजी से पूछा कि सोफा चला जाएगा, फिर मैं कहां बैठेंगे….पिताजी ने कहा, अगले महीने नया सोफा मंगा लूंगा। सोफा दीदी के घर चला गया था…अगले महीने हमारे घर नया सोफा नहीं आया …हमने लोहे की कुर्सियों को कमरे में रख लिया था, पर मेरा मन उन पर बैठने का बिल्कुल नहीं करता था। शादी को छह महीने बीत चुके थे दीदी जब शादी के बाद पहली बार मां से मिलने आई थी, तब बहुत रो रही थी। मां उसे बहुत देर तक कुछ-कुछ समझा रही थी…
मां कह रही थी, “क्या करोगी, कुछ लोगों की नीयत कभी नहीं भरती…पर समय से सब ठीक हो जाएगा।” मुझे पूरी बात समझ में नहीं आई थी, लेकिन मां बार-बार नियत की बातें समझा रही थी। शादी के कुछ महीनों के बाद दीदी का सबसे छोटा देवर जीजाजी के साथ हमारे घर आया था…उसकी उम्र भी मेरे बराबर ही रही होगी…
पर जब वो हमारे घर आया तो ऐसा लग रहा था जैसे कोई ख़ास बच्चा घर आया हो। मां सुबह-सुबह दीदी के देवर को गिलास में दूध देती। उसकी पसंद का खाना बनता…
पिताजी उसे खूब कमाते
जिस दिन उसे जाना था, उसके लिए ढेर सारे कपड़े खरीद कर लाए गए। मेरे मन में पहली बार ये ख्याल आया था कि मै कब देवर बनुंगा….खैर, जिस दिन जीजाजी को लौटना था, दीदी का देवर अड़ गया था कि उसे मेरा वाला कैरम बोर्ड चाहिए…
मेरा कैरम बोर्ड…..वो तो मुझे जान से अधिक प्यारा था। मैं रोज़ शाम को अपने दोस्त के साथ कैरम खेला था…उसे दीदी के देवर को क्यों दे दूं…
पर पिताजी ने समझाया कि बेटा, तुम इसे दे दो…“मैं नहीं दूंगा…. ये मेरा है…“मैं तुम्हारे लिए नया ला दूंगा…“आपने कहा था कि सोफा नया लाएंगे…
कहां आया…पिताजी चुप हो गए थे पर मेरा कैरम बोर्ड दीदी के देवर को दे दिया गया था…
तब से चालीस साल बीत गए, मैंने कैरम बोर्ड नहीं खेला।
कैरम बोर्ड चला गया था। मुझे अफसोस हुआ कि मैंने दीदी के देवर को अपना कैरम बोर्ड दिखाया ही क्यों था। मैं कई दिनों तक उदास रहा। फिर मैंने मां से पूछा था कि जीजाजी ने अपने छोटे भाई के लिए नया कैरम बोर्ड क्यों नहीं खरीद दिया। मेरा सोफा भी ले गए, मेरा कैरम बोर्ड भी ले गए। मां ने पहली बार मुझसे कहा था कुछ लोगों की नीयत कभी नहीं भरती, बेटा…आदमी का पेट भरे ना भरे, नीयत ज़रूर भरनी चाहिए। इतना कहते हुए मां ने अपने आंसू पोंछे और मुझे अपने आंचल में लपेट लिया। बहुत साल बीत गए। अब मुझे ना सोने से प्यार है, ना कैरम बोर्ड से…एक दिन दिल्ली के एक मॉल में खाना खाने जाते मेरी निगाह जब बर्गर के एक विज्ञापन पर पड़ी तो रुक गए… लिखा था, “पेट भरेगा, नियत नहीं…मैंने पत्नी सुधा से कहा कि ये कंपनी वाले कितनी गलत शिक्षा देते हैं..
कह रहे हैं कि पेट भर जाएगा, नीयत नहीं….लिखा ये चाहिए था कि नीयत भर जाएगी, पेट भले ना भरे….नीयत का भरना पेट भरने से अधिक जरूरी होता है इस संसार में जिसकी नीयत नहीं भरती, उसके पास चाहे सब कुछ हो, वो दूसरों के सामान पर नज़रें गड़ाए ही रहते हैं।जिनकी नीयत नहीं भरती…उनके घर में किसी की दीदी खुश नहीं रह सकती।