जो संगत बर्तन,थैलीया भर कर घर ले जाते है उन सगंत की आँखें खोलने के लिए गुरुजी का यह संदेश :- जो गुरुघर,मंदिर,भंडारे से लंगर बांध कर घर ले जाते हैं ? श्री गुरु नानक देव जी से एक महिला भक्त कहने लगी :- महाराज मैंने सुना है आप सभी के दुःख दूर करते हो मैं बहुत दुखी हूँ मैं रोज सेवा करती हूं फिर भी दुखी हूँ ऐसा क्यों ?
श्री गुरु नानक देव जी :- *तुम दुसरों का दुख अपने घर लाती हो इसलिए दुखी हो* वह बोली महाराज मुझे कुछ समझ नहीं आया ?
गुरु जी कहने लगे भंडारे का मतलब है इच्छा अनुसार या एक रोटी खाना और अपने प्रभु का शुकर मनाना.पर तूं तो रोज *थैलियों में दाल,सब्जी,रायता,खीर भर के ले जाती हो* अपने घर में सभी को खिलाती हो और बाकी बचा हुआ बासी भंडारे के प्रसाद को कूड़ेदान में फेंक देती हो या जानवरों को डाल देती हो.
तुम नहीं जानती कि *गुरु घर के लंगर प्रशाद के एक छोटे से टुकड़े में भी गुरुजी की वो ही कृपा रहती है जितना गुरुजी के भंडारे में होती है तूं भर-भर कर लंगर घर ले जाती है तूं ये नहीं जानती कि गुरुद्वारे में इस लंगर को चखने से कितनों के दुःख दूर होने थे ? और तूने अपने सुख के लिए दुसरों के दुख दूर नहीं होने दिए,तुम उनके सारे दुख अपने घर ले जाती हो और दुखी रहती हो.
तेरे दुख तो दिन दुगने रात चोगुने बढ़ रहे हैं उसमें हम क्या करें बता ? भक्त की आँखों से पर्दा हट गया जोर-जोर से रोने लगी और बोली :- महाराज मुझे क्षमा करो अब मैं नियमानुसार ही लंगर करूंगी. गुरु जी ने समझाया कि इंसान अपने दुःख खुद खरीदता है पर उसे पता नहीं चलता इसलिए *लंगर में अपनी भूख जितना ही खाना चाहिए,जूठन कभी नहीं छोड़नी चाहिए,लंगर प्रसाद को भर कर घर कभी नहीं लाना चाहिए,प्रसाद का एक कण भी कृपा से भरपूर होता है. लंगर प्रसाद उतना ही लें जितना खाया जा सके।