सुबह का समय था, सूर्यनारायण उठ रहे थे और एक लोमड़ी ऐसे समय जंगल में प्रकृति की सुंदरता का आनंद ले रही थी। अचानक उसका ध्यान उसकी छाया की ओर गया सुबह होने के कारण परछाई बहुत बड़ी थी अतः अपनी विशाल परछाई को देखकर उसे आश्चर्य हुआ, उसने सोचा कि यदि दोपहर की भूख लगने तक मैं एक छोटे जानवर को मार भी दूं तो मेरा पेट तो नहीं भरेगा,आज मुझे एक बड़े ऊंट को मारना होगा , तभी मेरा पेट भर पाएगा।
लोमड़ी ऊँट को मारने की नीयत से जंगल में भटकते हुए ऊँट से भेंट भी हुई लेकिन मारने की हिम्मत नहीं कर सकी सोचा दूसरे किसी कमजोर ऊँट को मार लुंगी, लेकिन कोई बड़े जनावर को नहीं मारा तो आज मेरा पेट भरनेवाला नहीं ऐसा सोच कर लोमड़ी जंगल में भटकती रही ।
दोपहर हो गयी , लेकिन मनचाहा शिकार नहीं मिला तो कश्मकश में पड गयी कि क्या किया जाए सूर्यनारायण सिर पर आ गए, और लोमड़ी का ध्यान फिर उसकी पडछाइ पर पड़ा। सुबह की विशाल परछाइ अब तक बहुत छोटी हो चुकी थी, इतनी छोटी थी की वास्तविक से भी आधी रह गयी थी।
अब लोमड़ी ने सोचा की , बेकार ही में ऊंट का शिकार करने के लिए अब तक भटकती रही, एक चूहा ही मार लेती तो मेरा पेट को भरने के लिए काफी था ।
हम भी, इस लोमड़ी की तरह, यह ख्याल करते हुए कि मुझे जीवित रहने के लिए बहुत कुछ चाहिए , पागलों की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ ये एहसास होता जाता है की वास्तव में जीने के लिए हमें इतनी ज्यादा की जरुरत ही नही थी हम तो बेकार में ही दौड़ रहे है।
आयु का सूर्य जैसे-जैसे आसमान में चढ़ाया जाता है, हमारे अपने अहंकार, की परछाई और सकल ब्रह्मांड में हमारा अपने ही बारे में किया गया अंदाजा , कपास या मूल्यांकन छोटा और अधिक वास्तविक होता जाता है।