एक चोर ने राजा के महल में चोरी की। राजा के सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया। चोर के पदचिह्नोंको देखते-देखते वे नगर से बाहर आ गये। पास में एक गाँव था। उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे। सिपाहियोंने गाँव के बाहर चक्कर लगाकर देखा कि चोर गाँव से बाहर नहीं गया, गाँव में ही है।
गाँव में जाकर उन्होंने देखा एक जगह सत्संग हो रहा है और बहुत-से लोग बैठकर सत्संग सुन रहे हैं। सिपाहियों को सन्देह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा। वे वहीं खड़े रहकर उसका इन्तजार करने लगे।
सत्संग में सन्त कह रहे थे कि जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान्की शरण में चला जाता है, भगवान् उसके सब पापों को माफ कर देते हैं। भगवान् ने कहा है—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६६)
‘सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।’
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
(वाल्मीकीय रामायण ६। १८। ३३)
‘जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’
इसकी व्याख्या करते हुए सन्त ने कहा कि जो भगवान का हो गया, उसका मानो दूसरा जन्म हो गया! अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया!
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।’ चोर वहीं बैठा सुन रहा था। उस पर सत्संग की बातों का असर पड़ा। उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब मैं भगवान की शरण लेता हूँ!
अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। मैं भगवान का हो गया! सत्संग समाप्त हुआ। लोग उठकर बाहर जाने लगे। बाहर राजा के सिपाही सबके पदचिह्नों को देख रहे थे। चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़ लिया।
सिपाहियों ने चोरको राजा के सामने पेश किया और कहा कि ‘महाराज! हमने चोर को पकड़ लिया है। इसी आदमी ने चोरी की है।’ राजा ने चोर से पूछा—‘इस महल में तुमने चोरी की? सच-सच बताओ, तुमने चोरी किया धन कहाँ रखा है?’ चोरने दृढ़तापूर्वक कहा—‘महाराज! चोरी मैंने नहीं की।
मैंने तो इस जन्म में ही कभी चोरी नहीं की!’ सिपाही बोले—‘महाराज! यह झूठ बोलता है। हम इसके पदचिह्नोंको पहचानते हैं। इसके पदचिह्नों से साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है।’ राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा।
चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया। फिर उसके ऊपर गरम करके लाल किया हुआ लोहा रखा। उसका हाथ जलना तो दूर रहा, पत्ते और सूत भी नहीं जला। उसने लोहा नीचे फेंका तो जहाँ वह गिरा, वह जगह काली हो गयी।
राजा ने देखा कि इसने वास्तव में चोरी नहीं की, यह निर्दोष है। अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया। तुम लोगों को दण्ड दिया जायगा। यह सुनकर चोर बोला—‘नहीं महाराज! इनको आप दण्ड न दें। इनका कोई दोष नहीं है। चोरी मैंने ही की थी!’ राजा ने सोचा कि यह साधु पुरुष है, इसलिये सिपाहियों को दण्ड से बचानेके लिये चोरी का दोष अपने पर ले रहा है।
राजा बोला—‘तुम इन पर दया करके, इनको बचाने के लिये ऐसा कह रहे हो। पर मैं इनको अवश्य दण्ड दूँगा।’ चोर बोला—‘महाराज! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी। अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियोंको मेरे साथ भेजो। मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा।’ राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा।
चोर उनको वहाँ ले गया, जहाँ उसने धन जमीन में गाड़ रखा था। चोर ने वहाँ से धन निकाल लिया और लाकर राजा के सामने रख दिया। यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ! राजा बोला—‘अगर तुमने चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला? परन्तु तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया—यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है! ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है?’
चोर बोला—‘महाराज! मैंने चोरी करनेके बाद धन को जंगलमें गाड़ दिया और गाँव में चला गया। वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था। मैं वहाँ जाकर लोगोंके बीच बैठ गया। सत्संग में मैंने सुना कि जो भगवान की शरण लेकर पुन: पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं।
उसका नया जन्म हो जाता है। इस बात का मेरे पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। अब मैं भगवान का हो गया। इसलिये तबसे मेरा नया जन्म हो गया। इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिये मेरा हाथ नहीं जला। आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी!’