यह कहानी त्रेता युग की है। उस समय श्रवण कुमार नाम का एक बालक था। उसके माता-पिता अंधे थे और उन्होंने श्रवण को कई मुसीबतों का सामना करते हुए पाला था। श्रवण कुमार बचपन से ही अपने माता-पिता का बहुत आदर करता था। जैसे-जैसे श्रवण बड़ा होता गया, उसने घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।
वह रोजाना सुबह उठकर सबसे पहले अपने माता-पिता को स्नान कराने के लिए तालाब से पानी भरकर लाता था। इसके बाद वह तुरंत जंगल की ओर लकड़ियां बीनने जाता। फिर लकड़ियां लाने के बाद श्रवण चूल्हा जलाकर माता-पिता के लिए खाना बनाता था।
श्रवण को इतनी मेहनत करते देख उसकी मां हमेशा उसे रोकती थी। वह कहती थी, “श्रवण बेटा तुम इतना सारा काम अकेले क्यों करते हो? खाना तुम मुझे बोलने दिया करो। मैं आसानी से बना लूंगी। इसके बदले तुम थोड़ा आराम कर लिया करो।”
मां की इन बातों को सुनकर श्रवण कुमार कहता, “नहीं मां, मैं ये सारे काम आप लोगों के लिए ही तो करता हूं। भला अपने मां-बाप के लिए किए गए कामों में कैसी थकान। उल्टा मुझे तो खुशी मिलती है।”
श्रवण कुमार की इन बातों को सुनकर उसकी मां भावुक हो गई। वो रोज भगवान से प्रार्थना करती, “हे प्रभु! इतना ध्यान रखने वाला श्रवण जैसा बेटा हर माता-पिता के घर पैदा हो।”
श्रवण के मां-बाप नियमित रूप से भगवान की आराधना करते थे। वह उनके लिए फूल और पूजा की अन्य सामग्री लाता। फिर खुद भी बिना देर किए माता-पिता के साथ पूजा में शामिल हो जाता था। श्रवण कुमार धीरे-धीरे बड़ा हुआ और जल्दी से घर के कार्यों को खत्म करके बाहर काम पर निकल जाता था।
एक दिन श्रवण अपने माता-पिता के साथ बैठा था, तभी उन्होंने श्रवण से कहा, “बेटा तुमने हमारी हर ख्वाहिश पूरा की है। अब हमारी केवल एक ही इच्छा है, जिसे हम पूरी करना चाहते हैं।
यह सुन श्रवण ने उनसे पूछा, “ऐसी कौन-सी इच्छा बाकी है, जिसे आप पूरा करना चाहते हैं। आप केवल आदेश दें। मैं आपकी हर ख्वाहिश को पूरा करूंगा।”
इस पर श्रवण के पिता ने कहा, “बेटा! अब हम बूढ़े हो चुके हैं और हम चाहते हैं कि मरने से पहले तीर्थ यात्रा के लिए जाएं। भगवान के शरण में जाकर हमें सुकून की प्राप्ति होगी।”
अपने मां-बाप की बात सुनकर श्रवण कुमार सोचने लग गया कि वह उनकी इस इच्छा को कैसे पूरा करेगा। उस समय बस और ट्रेन की सुविधा नहीं थी। साथ ही उसके माता-पिता देख भी नहीं सकते थे। ऐसे में उन्हें तीर्थ यात्रा कराना भला कैसे संभव हो पाता।
तभी श्रवण कुमार को एक तरकीब सूझी। वह तुरंत बाहर गया और वहां से दो बड़ी टोकरी लेकर आया। उसने उन दोनों नौकरियों को एक मजबूत डंडे में मोटी रस्सी के सहारे लटका कर एक बड़ा-सा तराजू बना लिया।
फिर श्रवण कुमार ने उस तराजू में अपने मां-बाप को बारी-बारी से गोद में उठाकर बैठा दिया। उसके बाद तराजू को अपने कंधों पर लेकर उन्हें तीर्थ यात्रा पर लेकर निकल पड़ा। वह लगातार कुछ दिनों तक अपने माता-पिता को एक के बाद एक सभी पवित्र स्थलों पर घूमने लगा। इस दौरान श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को प्रयाग से लेकर काशी तक के दर्शन कराए।
माता-पिता को घुमाते समय श्रवण कुमार उन्हें उन जगहों के बारे में भी बताते चलता था, क्योंकि वह आँखों से उस दृश्य को नहीं देख सकते थे। अपनी बेटे की मेहनत को देख उसके माता-पिता बहुत खुश थे।
उन्होंने एक दिन श्रवण से कहा, “बेटा, हम देख नहीं सकते, लेकिन कभी भी हमें इस बात का दुख नहीं हुआ। तुम हमारे लिए हमारी आंखें हो। तुमने हमें जिस तरह सारे पवित्र स्थानों की कथा सुनकर उनके दर्शन कराए हैं, ऐसा लगता है जैसे कि हमने सच में प्रभु के दर्शन अपनी आंखों से किया हो।”
अपनी माता-पिता की बातें सुनकर श्रवण ने कहा, “आप लोग ऐसी बातें न करें। बच्चों के लिए माता-पिता कभी भी बोझ नहीं होते। यह तो बच्चों का धर्म होता है।” एक दिन श्रवण कुमार आराम करने के लिए अयोध्या के पास अपने माता-पिता के साथ रुका। तभी उसकी मां ने पानी पीने की इच्छा जताई। श्रवण को पास में ही एक नदी दिखाई दी। उसने अपने माता-पिता से कहा, “आप दोनों यहां आराम करें, मैं आप लोगों के लिए अभी पानी लेकर आता हूं।”
नदी के पास पहुंचकर श्रवण कुमार कमंडल में पानी भरने लगा। उसी जंगल में अयोध्या के राजा दशरथ भी शिकार के लिए पहुंचे थे। पानी में हलचल की आवाज सुनकर उन्हें लगा कि कोई जानवर पानी पीने आया है। उन्होंने बिना देखे केवल ध्वनि सुनकर ही अपना तीर चला दिया। दुर्भाग्य से वह सीधे श्रवण कुमार को लग गया। तीर लगते ही वह चीख पड़ा।
इसके बाद राजा दशरथ जब अपने शिकार को देखने पहुंचे, तो वहां श्रवण था। वो तुरंत श्रवण कुमार के नजदीक पहुंचे और कहा, “मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। मुझे माफ कर दीजिए। मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि यहां कोई मानव होगा। मैं इस गलती का पश्चाताप करने के लिए क्या करूं कि तुम मुझे माफ कर दो।”
तभी करहाते हुए श्रवण कुमार ने कहा, “यहां से थोड़ी ही दूर जंगल में मेरे माता-पिता बैठे हैं। उन्हें काफी प्यास लगी है। आप उन तक यह पानी पहुंचा दीजिए और मेरे बारे में उन्हें कुछ भी न बताएं।” इतना कहते-कहते श्रवण कुमार की सांसे रुक गईं।
श्रवण कुमार की मौत से राजा दशरथ सुन्न पड़ गए। किसी तरह वो श्रवण कुमार के बताए अनुसार जल लेकर उसके माता-पिता के पास पहुंचे। श्रवण के माता-पिता अपने बेटे की आहट को बखूबी पहचानते थे। जब राजा दशरथ उनके करीब पहुंचे तो उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “तुम कौन हो और हमारे श्रवण को क्या हुआ? वह क्यों नहीं आया?”
राजा दशरथ उनके सवालों का जवाब नहीं दे पाए। उन्होंने चुपचाप पानी उनकी तरफ बढ़ा दिया। तभी श्रवण की मां ने चिंतित स्वर में जोर से कहा, “तुम कौन हो और मेरा बेटा कहां है, ये बताते क्यों नहीं हो?’
श्रवण की मां की चिंता देखकर राजा दशरथ ने कहा, “मां मुझे माफ कर दीजिए। शिकार करने के लिए मैंने जो तीर चलाया था, वो सीधे आपके बेटे श्रवण को जा लगा। उसने मुझे आप लोगों के बारे में बताया, इसलिए मैं यहां पानी लेकर चला आया।” इतना कहकर राजा दशरथ चुप हो गए।
राजा दशरथ की बात सुनकर श्रवण की मां जोर-जोर से रोने लगी। उन दोनों ने अपने बेटे की मौत के गम में राजा दशरथ के लाए हुए पानी को हाथ तक नहीं लगाया। श्रवण के पिता ने तभी राजा दशरथ को पुत्र वियोग का श्राप दे दिया। कुछ ही देर बाद श्रवण के माता-पिता ने अपने प्राण त्याग दिए।
बताया जाता है कि श्रवण कुमार के पिता के श्राप के परिणामस्वरूप ही राजा दशरथ को अपने पुत्र राम से दूर रहने पड़ा था। राजा दशरथ के इस श्राप को पूरा करने के लिए ही भगवान राम को 14 वर्षों का वनवास हुआ, जिसका माध्यम दशरथ की पत्नी कैकेयी बनीं। श्रवण के पिता की ही तरह राजा दशरथ भी अपने बेटे से दूरी को बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
कहानी से सीख– हर बच्चे को अपने माता-पिता की सेवा श्रवण कुमार की तरह ही निस्वार्थ भाव से करनी चाहिए। यहां का सबसे बड़ा कर्तव्य है।