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आज की कहानी–रास्ते का पत्थर

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(जब गोपाल भांड ने महाराज कृष्णचंद्र को सिखलाया प्रजावत्सलता का पाठ और वह भी सरोवर किनारे पड़े पत्थर की मदद से।)
महाराज ने सेवक से सामान्य औपचारिकताओं से मुक्त होकर जल-क्रीड़ा करने की इच्छा प्रकट की :
एक दिन महाराज कृष्णचंद्र ने सुबह-सुबह गोपाल भांड को अपने महल में बुलाकर कहा, ‘गोपाल, आज मुझे सरोवर में स्नान करने ही इच्छा हो रही है। मैं सामान्य औपचारिकताओं से मुक्त होकर एक सामान्य व्यक्ति की तरह जल-क्रीड़ा करना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि मैं तैरकर सरोवर के मध्य तक जाऊं और वहां से रक्तकमल के कुछ पुष्प स्वयं तोड़ लाऊं। ऐसा करो तुम स्वयं जाओ और देखकर आओ कि इस समय सरोवर के आसपास कितने आदमी हैं।
सेवक ने कहा सरोवर के पास केवल एक आदमी है आप जाकर स्नान कर सकते है :
गोपाल ने  महाराज की बातें सुनीं और बिना कुछ बोले सरोवर की ओर चल पड़ा। थोड़ी ही देर में वह सरोवर के पास पहुंच गया। उस समय स्नान करने के लिए अनेक आदमी सरोवर की ओर जा रहे थे। गोपाल उन लोगों को देर तक देखता रहा, फिर वहां से लौटकर महाराज के समक्ष उपस्थित हुआ।‘महाराज, आपने मुझे यह देखकर आने को कहा था कि सरोवर के पास कितने आदमी हैं, मैं देख आया हूं, वहां सिर्फ़ एक आदमी है।
राजा ने देखा सरोवर के पास बहुत भीड़ थी जिसे देख वह खिन्न हो उठा  :
गोपाल के उत्तर से महाराज प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, ‘तब ठीक है गोपाल। तुम भी चलो, थोड़ी जल-क्रीड़ा कर आएं।’ गोपाल के साथ महाराज सरोवर की ओर चल पड़े। सरोवर के पास पहुंचकर महाराज यह देखकर हतप्रभ रह गए कि सरोवर में सैकड़ों लोग स्नान कर रहे हैं। आप निसंकोच जल में उतरें और अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए तैरें… रक्तकमल तोड़ें… इनमें से कोई भी न तो आपको पहचानेगा और न ही देखेगा कि आप क्या कर रहे हैं। आप वस्त्र उतारकर मुझे दें और निश्चिंत होकर जल में उतरें। महाराज कृष्ण चंद्र ने कुपित स्वर में कहा, ‘यदि मुझे किसी ने भी पहचान लिया तो तुम्हारी खैर नहीं। गोपाल, याद रखना।यदि आपको मार्ग में किसी ने भी टोका तो आप जो चाहें, मुझे सजा दे दें, मैं स्वीकार कर लूंगा।
एक आदमी ने राजा को टोक दिया :
अभी गोपाल कुछ कहता कि एक व्यक्ति वहां आया और विनम्रतापूर्वक महाराज को नमस्कार किया। महाराज चौंके और गोपाल से कहने लगे, ‘लेकिन गोपाल, देखो, यह व्यक्ति मुझे पहचानता है, अब बताओ, तुम सजा के भागी हो या नहीं?’‘नहीं, महाराज, क़तई नहीं।’ गोपाल ने तत्काल उत्तर दिया। उसने पुन: कहा, ‘महाराज, आप भूल गए मैंने आपसे सुबह यह भी कहा था कि सरोवर के पास केवल एक आदमी है। यह आदमी वही है महाराज, जो अपने राजा को सामान्य नागरिक के वेश में भी पहचान गया और उसे अपना अभिवादन देने पहुंच गया महाराज।’ महाराज को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने आगे बढ़कर उस व्यक्ति को गले लगा लिया।
महाराज ने पूछा, ‘गोपाल, तुमने यह कैसे जाना कि इतने सारे लोगों में कोई भी मुझे नहीं पहचानेगा ?
गोपाल ने शांत भाव से कहा, ‘महाराज, जब मैं सुबह आपके पास आया, तब अशांत था। मेरा चित्त खिन्न था। मैं सरोवर के पास उसी बरगद के नीचे थोड़ी देर बैठकर विश्राम करने लगा, ताकि चैतन्य हो लूं। मैंने देखा, सरोवर की राह में एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा हुआ है। कई लोगों को उस पत्थर से चोट लग चुकी थी। लेकिन एक आदमी उधर से गुज़रते समय पत्थर के पास रुका और उसे हटाने लगा। काफ़ी परिश्रम के बाद उसने पत्थर को वहां से उखाड़कर सड़क से दूर ले जाकर रखा और थककर सरोवर के किनारे विश्राम करने लगा। उसे न तो किसी से प्रशंसा की अपेक्षा थी और न किसी से अपने श्रम का मूल्य पाने की लालसा।
महल निकट आ चुका था। महाराज ने पूछा, ‘ऐसा क्यों है गोपाल?
गोपाल ने उत्तर दिया, ‘महाराज, यथा राजा तथा प्रजा। आप स्वयं कभी अपनी प्रजा का हालचाल जानने का उद्यम नहीं करते। कभी कोई आयोजन नहीं करते, जिसमें प्रजा की भागीदारी हो। ऐसी प्रजा का ऐसा ही एकांगी विकास होता है, इसलिए यदि ऐसा है तो किम् आश्चर्यम्?’
राजा को समझ आ चुका था और उसने अब अपनी प्रजा के लिए कार्य करना शुरू कर दिया :
महाराज को गोपाल की बात समझ में आ गई। इसके बाद महाराज कृष्ण चंद्र ने महीने में एक बार खुला दरबार लगाना शुरू कर दिया, जिसमें अपनी समस्याओं से महाराज को अवगत कराने की सुविधा प्रजा को मिल गई। महाराज स्वयं भी प्रजा का हाल-चाल जानने के लिए प्राय: रात्रि भ्रमण पर निकलने लगे। इस सबका नतीजा हुआ कि देखते-देखते कुछ दिनों में ही कृष्णानगर में सामाजिक समरसता का संचार होने लगा।

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