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आज की कहानी–समय और बदलाव

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शाम के चार बजे है किससे बात करूँ। माँ और भाभी से कल बात करी थी । दीदी से परसों बात करी थी । समय काटे नहीं कटता है । अब बिल्कुल मन नही लगता है । बच्चे छोटे थे तो मन करता था , किसी तरह दस मिनट मिलने  जाए अपने लिए। 
 
मैं हर समय बच्चों पर चिल्लाती रहती कि घर गंदा मत करो , हर चीज जगह पर रखो । इधर उधर  बिखरे कुशन देखकर तो मेरा पारा सातवें आसमान पर होता था । उनकी शोर भरी आवाजो से मेरे सर मे दर्द रहने लगा था । 
 
पूरे दिन शिकायतों की पोथी इकट्ठी करती रहती थी जैसे ही शाम को सुमित घर पहुँचते , एक कप चाय सर्व करने से पहले शिकायतों का चिट्ठा परोसती । कभी उनका मूड ठीक होता तो वो कुछ न कहते , पर कभी तो बच्चों की अच्छी क्लास लग जाती थी ।
 
बच्चे मुझ से किस तरह दूर होते गये , हर बात का उत्तर बस हा या ना मे देने लगे । अपने कमरे से फिर कभी निकलते ही नही थे । सुमित भी ऑफिस से आकर खाना खाकर तुरंत सोने लगे । मुझे घर में अब शान्ति अच्छी लगने लगी थी । हर चीज जगह पर रहती थी ।
 
रविवार के दिन बच्चे ड्राइंग रूम और बाथरूम को खुद ही अच्छे से साफ करने लगे थे । अखबार के बिखरे पन्ने जो पहले सुमित पढ़ने मे इधर उधर कर देते थे अब तरीके से फोल्ड कर अलमारी के एक कोने मे लगा देते थे । जब भी अवि और मुस्कान के कमरे में जाकर उन से बात करने की कोशिश करती , बच्चे कहते अभी पढ़ रहे होते या गेम खेल रहे होते थे ।
 
मुझे अब बहुत समय बाद घर , घर लगने लगा था । सब मेरे हिसाब से चलने लगा । सुमित भी न खाने की कुछ फरमाइश करते थे , तो काम मेरा जल्दी निपट जाने लगा । अपनी सहेलियों के बताए सीरियल मैं देखकर खुश होने लगी थी । दो किटी पार्टी भी डाल ली थी ताकि मेरा सोशल सर्कल बन जाए। 
 
दो तीन साल इसी दिनचर्या में बीते । अब मुझे अपनी जिन्दगी बहुत अच्छी लगने लगी थी । मेहमानों को सुमित कभी घर नही बुलाते थे , क्योकि उन्हे पता था कि मुझे भी अपने लिए समय चाहिए था। आदि और आराध्या दो साल के अंतर में बारहवीं कर पढने के लिए बाहर जा चुके है । सुमित भी अपने दोस्तों में अब ज्यादा रहने लगे है ।
 
अब बच्चों के कमरो मे जब भी जाती हूँ , चादर पर कोई सिलवट नही पाती , शोर होता नहीं तो मेरे सर में दर्द भी नहीं होता । पूरे दिन ड्राइंग रूम से गुजरते हुए कुशनों को देखा करती हूँ , बिल्कुल तरीके से सोफे पर सजे रहते है , गन्दे भी नही होते । 
 
परन्तु सजे धजे रखे हुए मुझे चिढाते हुए कहते रहते हैं कि मेरे चेहरे की रौनक अब कहां चले गयी है ? एकदम साफ सुथरा घर , फिर भी मै बुझी-बुझी हूँ।  कोई अब होता ही नहीं कि बात करूँ। इन्तजार करती रहती हूँ कि बच्चे घर आये तो कुछ रौनक हो जाए। 
 
घर की दीवारें मुझे जेल लगने लगी हैं । हर समय मोबाइल उठा मैसेज चेक करती रहती हूँ , फोन की रिगं या डोर बैल सुन सब काम छोड़कर भागती हूँ। 
अब बस इंतज़ार करती हूँ कि पति, बच्चे,  मेहमान कोई हो , मुझसे बात करे । 
 
जब दूर दूर तक कोई ऐसी घंटी नहीं बजती , तो बार बार टेलीविजन ओन करती हूँ, परन्तु अब उन सीरियल की आवाजे ही मुझे परेशान करने लगती है । अब कुशनों से ही बात कर करके कहती हूँ कि जल्दी से बच्चे घर आ जाये तो बहार आ जायेगी । सुमित का मन भी फिरसे घर में लगने लगेगा ।
 
जब तक बच्चे अपनी जिन्दगी की उड़ान भरने से पहले घर में है तब तक फैलते है तो फैलने दीजिए उन कुशनो को खिलौनों को,कपड़ों को , फिर तो दूर दूर तक कोई नहीं होगा , रह जाओगी तुम और कशीदाकारी भरे कुशन ।

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