” तुम्हारी वीरता को सलाम शहादत को है प्रणाम।
हे वतन के खातिर मिटने वालो इस देश को तुम पर है अभिमान। “
परमवीर चक्र क्यों दिया जाता है?
इस पदक की शुरुआत 26 जनवरी 1950 को की गई, यह पदक शुगमन का मुकाबला करते हुए अदम्य साहस अथवा जांबाजी अथवा बहादुरी के बड़े कारनामे अथवा जान न्योछावर करने को सम्मानित करने के लिए प्रदान किया जाता है। पदक: यह पदक गोलाकार होता है, कांसे के बने इस पदक का व्यास १.३७५ इंच है।जीवन परिचय
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी, 1923 को हुआ था। इनके गाँव डाढ, जो की पालमपुर तहसील ,जिला काँगड़ा हिमाचल प्रदेश में है ,से कुछ दूरी पर ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल चामुण्डा नन्दिकेश्वर धाम है। सैनिक परिवार में जन्म लेने के कारण सोमनाथ शर्मा वीरता और बलिदान की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। देशप्रेम की भावना उनके खून की बूँद-बूँद में समायी थी।इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुड, नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि रखते थे।सेना में भर्ती
इसके बाद उन्होंने प्रिन्स ऑफ वेल्स रायल इण्डियन मिलिट्री कॉलेज, देहरादून से सैन्य प्रशिक्षण लिया। 22 फरवरी 1942 को इन्हें कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन में सेकण्ड लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे। इसी साल इन्हें डिप्टी असिस्टेंट क्वार्टर मास्टर जनरल बनाकर बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ इन्होंने बड़े साहस और कुशलता से अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया।भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947)
15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतंत्र होते ही देश का दुखद विभाजन भी हो गया। जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह असमंजस में थे। वे अपने राज्य को स्वतंत्र रखना चाहते थे। दो महीने इसी कशमकश में बीत गये। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में कश्मीर हड़पने के लिए टूट पड़े।3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुक्म दिया गया। 3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुंचे और उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी।
तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेर कर हमला किया और भारी गोलाबारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।
दाएं हाथ में फ्रैक्चर था फिर वो युद्ध में गए
मेजर शर्मा के दाएं हाथ में फ्रैक्चर था फिर वो युद्ध में गए। तीन नवंबर को मेजर शर्मा की नेतृत्व में 4 कुमाऊं बटालियन की ए और डी कंपनी बड़गाम की गश्त पर निकली। मेजर शर्मा की टुकड़ी ने गश्त के बाद बड़गाम गांव के पश्चिम में खंदक बनाकर सैन्य चौकी बनायी। मेजर शर्मा के अलावा 4 कुमाऊं बटालियन की 1 पैरा कैप्टन रोनाल्ड वुड के नेतृत्व में बड़गाम गांव के दक्षिण-पूर्व में एक मोर्चा बांधा। दोपहर तक गांव में पूरी शांति थी इसलिए कैप्टन वुड के नेतृत्व वाली कंपनी को पूर्वी तरफ की गश्त करते हुए एयरबेस जाने का आदेश मिला।बड़गाम में किसी तरह की अवांछित या अप्रिय गतिविधि का सुराग न मिलने के कारण मेजर शर्मा की टुकड़ियों को भी वापस आने का आदेश मिला लेकिन उन्होंने शाम तक वहीं रुकने का विचार किया। दूसरी तरफ सीमा पर एक पाकिस्तानी मेजर के नेतृत्व में कबायली समूह छोटे-छोटे गुटों में इकट्ठा हो रहे थे ताकि भारतीय गश्ती दलों को उनका सुराग न मिल सके। भारतीय टुकड़ी को वापस जाते देख कबायली हमलावरों ने हमला करने की ठानी। देखते ही देखते मेजर शर्मा की चौकी को कबायली हमलावरों ने तीन तरफ से घेर लिया। हमलावर टिड्डी दल की तरह बढ़ते जा रहे थे। हमलावर मोर्टार, लाइट मशीनगन और अन्य आधुनिक हथियारों से लैस थे। हमलावरों की बढ़ती संख्या देखकर मेजर शर्मा ने ब्रिगेड मुख्यालय को इसकी खबर दी।
मेजर शर्मा की टुकड़ी में उस समय कुल 50 जवान थे। मुख्यालय से मदद आने तक इन्हीं 50 जवानों को हमलावरों को श्रीनगर एयरफील्ड तक पहुंचने से रोकना था। श्रीनगर एयरफील्ड शेष भारत से कश्मीर घाटी के हवाई संपर्क का एक मात्र जरिया था। हमलावरों और भारतीय जवानों के बीच जबरदस्त संघर्ष शुरू हो गया। मेजर शर्मा जानते थे कि हमलावरों को उनकी टुकड़ी को कम से कम छह घंटे तक रोके रखना होगा ताकि उन्हें मदद मिल सके।
मेजर शर्मा जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए गोलियों की बौछार के सामने खुले मैदान में एक मोर्च से दूसरे मोर्चे पर जाकर जवानों का हौसला बढ़ा रहे थे। हाथ में प्लास्टर लगे होने के बावजूद वो जवानों की बंदूकों में मैगजीन भरने में मदद करते रहे। उन्होंने खुले मैदान में कपड़े से एक निशान बना दिया ताकि भारतीय वायु सेना को उनकी टुकड़ी की मौजूदगी का सटीक पता चल सके। शहीद होने से पहले मेजर शर्मा ने ब्रिगेड मुख्यालय को भेजे आखिरी संदेश में कहा था, “दुश्मन हमसे केवल 50 गज दूर है। दुश्मन की संख्या हमसे बहुत ज्यादा है। हमारे ऊपर तेज हमला हो रहा है। लेकिन जब तक हमारा एक भी सैनिक जिंदा है और हमारी बंदूक में एक भी गोली है हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे।”
बड़गाम की लड़ाई में मेजर सोमनाथ शर्मा, सूबेदार प्रेम सिंह मेहता और 20 अन्य जवान शहीद
आखिरकार मेजर शर्मा एक मोर्टार के गोले की चपेट में आ गए और कश्मीर की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। उन्होंने प्राण देकर भी अपना वचन निभाया और दुश्मनों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया। मेजर शर्मा की शहादत से प्रेरित भारतीय सैनिक ब्रिगेड मुख्यालय से मदद आने तक हमलावरों का मुकाबला करते रहे थे। बड़गाम की लड़ाई में मेजर सोमनाथ शर्मा, सूबेदार प्रेम सिंह मेहता और 20 अन्य जवान शहीद हुए थे। वहीं भारतीय सैनिकों ने 200 से ज्यादा हमलावरों को मार गिराया था।अंतिम शब्द
“दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।”