यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति, तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ( अध्याय 7 श्लोक 21 )
यः-यः-जो,जो; याम्-याम्-जिस-जिस; तनुम् के रूप में; भक्तः-भक्त; श्रद्धया श्रद्धा के साथ; अर्चितुम्-पूजा करना; इच्छति–इच्छा; तस्य-तस्य-उसकी; अचलाम्-स्थिर; श्रद्धाम्-श्रद्धा; ताम्-उस; एव–निश्चय ही; विदधामि-प्रदान करना; अहम्–मैं।
अर्थ – भक्त श्रद्धा के साथ स्वर्ग के देवता के जिस रूप की पूजा करना चाहता है, मैं ऐसे भक्त की श्रद्धा को उसी रूप में स्थिर करता हूँ।
व्याख्या – पिछले श्लोक में श्री कृष्ण कहते है कि भौतिक सुख की कामना से मनुष्य देवताओं की पूजा करते है और इस श्लोक में वो इस बात को भी समझाते है की मनुष्य की श्रद्धा को उसी रूप में स्थिर करने वाले भी कृष्ण ही है। यानी कि व्यक्ति भले ही श्री भगवान् की भक्ति नहीं करे और संसार में सुख की कामना करे उसके बाद भी ईश्वर उसकी भक्ति को उस देवता में दृढ करते है जिसकी वो सेवा करता है। यह चीज दर्शाती है कि कृष्ण कितने करुणा से भरे हुए है। वो सदैव अपने भक्त का भला ही चाहते है। धर्म अनुकूल आचरण करने में वो मनुष्य की मदद करते है।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते, लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ( अध्याय 7 श्लोक 22 )
स:-वह; तया-उसके साथ; श्रद्धया विश्वास से; युक्त:-सम्पन्न; तस्य-उसकी; आराधनम्-पूजा; ईहते-तल्लीन होने का प्रयास करना; लभते प्राप्त करना; च-तथा; ततः-उससे; कामान्–कामनाओं को; मया मेरे द्वारा; एव-केवल; विहितान्–स्वीकृत; हि-निश्चय ही; तान्-उन।
अर्थ – श्रद्धायुक्त होकर ऐसे भक्त विशेष देवता की पूजा करते हैं और अपनी वांछित वस्तुएँ प्राप्त करते हैं किन्तु वास्तव में ये सब लाभ मेरे द्वारा ही प्रदान किए जाते हैं।
व्याख्या – इस श्लोक से यह चीज स्पष्ट होती है कि परम ईश्वर कृष्ण ही है। इंसान अपने सुख के लिए देवताओं की पूजा करता है लेकिन उन देवताओं को शक्ति खुद कृष्ण देते है। तो मनुष्य यह सोचता है कि उसे वो लाभ अमुक देवता के द्वारा प्रदान किये जा रहे है लेकिन वास्तव में वो सभी सुख श्री कृष्ण के द्वारा ही प्रदान किए जाते है। भगवान से स्वीकृति प्राप्त होने पर ही देवता अपने भक्तों को सांसारिक पदार्थ प्रदान कर सकते हैं।