हमारी सनातन संस्कृति में हर महीने और तिथि का विशेष महत्व है। इसी तरह, अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जितिया व्रत मनाया जाता है, जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से माता के पुत्र पर कभी संकट नहीं आता। आइए, जानते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व।
जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम ही इसके महत्व को दर्शाता है। इस व्रत के माध्यम से संतान की आयु दीर्घ होती है और उसके जीवन में संकट नहीं आता। माताएं इस दिन निर्जला व्रत रखती हैं और रात्रि में पूजा विधि के बाद इस व्रत को खोलती हैं। जितिया व्रत का वर्णन भविष्य पुराण और कई पौराणिक कथाओं में मिलता है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती को बताया था कि जो माताएं अपनी संतान की खुशी के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत का पारण करेंगी, उनकी संतान पर कभी संकट नहीं आएगा। यही कारण है कि माताएं इस व्रत का पालन करती हैं।
कुछ पौराणिक कथाओं के अनुसार, जितिया व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। जब द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई, तो उनके पुत्र अश्वत्थामा ने क्रोध में ब्रह्मास्त्र चला दिया। इस ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहा शिशु मारा जाता है। दुखद घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति से उस बच्चे को पुनर्जीवित किया, और उसका नाम जीवित्पुत्रिका रखा गया। मान्यता है कि इसी घटना के बाद माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए जितिया व्रत रखने लगीं। यह व्रत मां और बच्चे के पवित्र बंधन का प्रतीक है और माताओं के अपने बच्चों के प्रति प्रेम को दर्शाता है।