देवशर्मा नाम का एक ब्राह्ममण था। दान में मिले कपड़ों को बेचकर उसने काफी धन इकट्ठा कर लिया था। अपने धन की सुरक्षा के लिए उन्हें एक पोटली में बांधकर उसे सदा अपने साथ रखता था। किसी दूसरे पर विश्वास नहीं करता था।अष्टभूति नामक चोर ने सदा उसे एक पोटली लिए देखकर सोचा कि यह अवश्य ही बहुमूल्य है, इसे चुराना चाहिए। पहले मैं इसका विश्वास जीतता हूं फिर इसे ठगूंगा।
एक दिन वह देवशर्मा के पास गया और बोला, संत, आपका अभिवादन है। मैं अनाथ हूं। मुझे शिष्य स्वीकार करें। आजन्म मैं आपकी सेवा करूंगा। देवशर्मा ने प्रसन्न होकर कहा, ठीक है, मैं तुम्हें शिष्य बनाता हूं पर एक शर्त है- मेरी पोटली को हाथ भी नहीं लगाओगे।
अष्टभूति देवशर्मा के साथ स्वामीभक्त शिष्य की भांति रहने लगा। एक दिन किसी पुराने शिष्य का निमंत्रण स्वीकार कर दोनों उसके घर पहुंचे। वहां कमरे में स्वर्ण मुहर पड़ी हुई मिली। अष्टभूति ने मालिक का विश्वास जीतने के लिए कहा, श्रीमान् क्षमा करें, यह मुहर तो हमारी नहीं है। हमें इसे दे देना चाहिए।
अष्टभूति की ईमानदारी से देवशर्मा अभिभूत होकर मन ही मन सोचने लगा, यह तो बहुत ही ईमानदार व्यक्ति है। अब मुझे भय नहीं है। यह मेरा धन नहीं चुराएगा। वापस लौटते समय एक नदी पड़ी। देवशर्मा ने नहाने की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा, पुत्र! मैं नहाना चाहता हूं। तुम मेरी गठरी और पोटली का ख्याल रखो। यह कहकर देवशर्मा नहाने चला गया।
अष्टभूति ने धन की पोटली उठाई और चंपत हो गया। नदी के दूसरे किनारे पर बकरियाँ आपस में लड़ रही थीं। देवशर्मा उसी दृश्य को देख रहा था। नहाकर जब किनारे आया तो अपनी पोटली और अष्टभूति को वहां न पाकर उसने पहले पुकारा फिर समझ गया कि वह ठगा गया है। एक अनजान पर विश्वास करने के कारण उसे धोखा मिला था, उसकी सारी संपत्ति जा चुकी थी।
शिक्षा : शीघ्र ही किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए।