आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतम्।
तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः।
शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते।
जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ||
अर्थ – मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष तक ही सीमित रहती है और उसका आधा भाग रात्रि के रूप (नीद लेने में) व्यतीत हो जाता है | बचे हुए आधे भाग का आधा (25 वर्ष) बचपन और वृद्धावस्था में व्यतीत हो जाते हैं और बाकी बचे हुए वर्ष बीमारियों, वियोग , दुःख तथा सेवा आदि में व्यतीत हो जाते हैं | यह जीवन जल में उठी हुई तरंगों के समान अत्यन्त चञ्चल है | अतः प्राणियों को सुख और शान्ति कहां प्राप्त होती है ?
The life of man (as ordained) is limited to one hundred years; half of it is spent in night. and out of the other half one half again is passed in childhood and old age; and the rest which has its illness, bereavements, and troubles is spent in serving (others). What happiness can there be for mortals in a life (again) which is even more uncertain than the ripples (on the surface) of water?